शरीररचना-विज्ञान
शारीरिकी, शारीर या शरीररचना-विज्ञान (अंग्रेजी:Anatomy), जीव विज्ञान और आयुर्विज्ञान की
एक शाखा है जिसके अंतर्गत किसी जीवित (चल या अचल) वस्तु का विच्छेदन कर, उसके अंग प्रत्यंग
की रचना का अध्ययन किया जाता है। अचल में वनस्पतिजगत तथा
चल में प्राणीजगत का
समावेश होता है और वनस्पति और प्राणी के संदर्भ में इसे क्रमश: पादप शारीरिकी और जीव
शारीरिकी कहा जाता है। जब किसी विशेष प्राणी अथवा
वनस्पति की शरीररचना का अध्ययन किया जाता है, तब इसे विशेष शारीरिकी (अंग्रेजी:Special
Anatomy) अध्ययन कहते हैं।
जब किसी प्राणी या वनस्पति की शरीररचना की तुलना किसी दूसरे प्राणी अथवा वनस्पति
की शरीररचना से की जाती है उस स्थिति में यह अध्ययन तुलनात्मक शारीरिकी (अंग्रेजी:Comparative
Anatomy) कहलाता है। जब
किसी प्राणी के अंगों की रचना का अध्ययन किया जाता है, तब यह आंगिक शारीरिकी (अंग्रेजी:Regional
Anatomy) कहलाती है।
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परिचय
व्यावहारिक या
लौकिक दृष्टि से मानव शरीररचना का अध्ययन अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। एक चिकित्सक को
शरीररचना का अध्ययन कई दृष्टि से करना होता है, जैसे रूप, स्थिति, आकार एवं अन्य रचनाओं से संबंध।
आकारिकीय शरीररचना विज्ञान (Morphological
Anatomy) की दृष्टि से
मानवशरीर के भीतर अंगों की उत्पत्ति के कारणों का ज्ञान, अन्वेषण का विषय
बन गया है। इस ज्ञान की वृद्धि के लिए भ्रूणविज्ञान(Embryology),
जीवविकास विज्ञान, जातिविकास विज्ञान
एवं ऊतक विज्ञान (Histo-anatomy)
का अध्ययन आवश्यक है।
स्वस्थ मानव शरीर की रचना का अध्ययन निम्न
भागों में किया जाता है:
1. चिकित्साशास्त्रीय शरीररचना विज्ञान,
2. शल्यचिकित्सा शरीररचना विज्ञान (Surgical Anatomy),
3. स्त्री शरीर विशेष रचना विज्ञान,
4. धरातलीय शरीररचना विज्ञान (surface Anatomy),
5. सूक्ष्मदर्शीय शरीररचना विज्ञान (Microscopic Anatomy) तथा
6. भ्रूण शरीररचना विज्ञान (Embryology)।
विकृत अंगों की रचना के ज्ञान को विकृत शरीररचनाविज्ञान (Pathological Anatomy) कहते हैं।
मानव की विभिन्न प्रजातियों की शरीररचना का जब
तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है, तब मानवविज्ञान (Anthropology)
का सहारा लिया जाता है। आजकल शरीररचना का
अध्ययन सर्वांगी (systemic) विधि से किया जाता है।
ईसा से 1,000 वर्ष पूर्व महर्षि सुश्रुत ने शवच्छेद कर शरीररचना का पर्याप्त वर्णन किया था। धीरे-धीरे यह ज्ञान अरब और यूनान होता हुआ यूरोप में पहुँचा और वहाँ पर इसका बहुत विस्तार एवं उन्नति हुई। शव की संरक्षा के साधन, सूक्ष्मदर्शी, ऐक्सरे आदि के उपलब्ध होने पर शरीररचना विज्ञान का अध्ययन अधिक सूक्ष्म एवं विस्तृत हो गया है। शरीर रचना की सबसे छोटी इकाई कोशिका है। बहुत सी कोशिकाएँ मिलकर ऊतकबनते हैं; एक या अनेक प्रकार के ऊतकों से अंग बनते हैं; कई अंग मिलकर एक तंत्र बनाते हैं। शरीर कई तन्त्रों का समूह है।
कोशिका
शरीर का निर्माण करनेवाले जीवित एकक (unit) को कोशिका (cell)
कहते हैं। यह सूक्ष्मदर्शी से देखी जा सकती है।
कोशिका एक स्वच्छ लसलसे रस से, जिसे जीवद्रव्य कहते
हैं, भरी रहती है।
कोशिका को चारों ओर से घेरनेवाली कला को कोशिका भित्ति कहते
हैं। कोशिका के केंद्र में न्यूक्लियस रहता है, जो कोशिका पर
नियंत्रण करता है। कोशिका के जीवित होने का लक्षण यही है कि उसमें अभिक्रिया, शक्ति, एकीकरण शक्ति, वृद्धि, विसर्जन शक्ति तथा
उत्पादन शक्ति, उपस्थित रहे। शरीर
का स्वास्थ्य कोशिकाओं के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। कार्यनुसार कोशिकाएँ अपना
आकार इत्यादि परिवर्तित कर, भिन्न भिन्न
वर्गों में विभाजित होती हैं, जैसे तंत्रिका कोशिका, अस्थि कोशिका, पेशी कोशिका आदि।
ऊतक
एक प्रकार की आकृति एवं कार्य करनेवाली
कोशिकाएँ मिलकर, एक विशेष प्रकार
के ऊतक का निर्माण करती हैं। ऊतक (Tissues)
मुख्यत: पाँच प्रकार के होते हैं :
(1) उपकला,
(2) संयोजी ऊतक,
(3) स्केलेरस ऊतक,
(4) पेशी ऊतक तथा
(5) तंत्रिका ऊतक।
तंत्र
शरीर का निर्माण निम्नलिखित तंत्रों द्वारा
होता है :
(1) अस्थि तंत्र,
(2) संधि तंत्र,
(3) पेशी तंत्र,
(4) रुधिर परिवहन तंत्र,
(5) आशय तंत्र :
·
(क) श्वसन तंत्र,
·
(ख) पाचन तंत्र,
·
(ग) मूल एवं जनन
तंत्र,
(6) तंत्रिका तंत्र तथा
(7) ज्ञानेंद्रिय तंत्र।
धरातलीय
शरीररचना विज्ञान
शरीरशास्त्र की यह महत्वपूर्ण शाखा है और शल्य
चिकित्सा तथा रोग निदान में अत्यंत सहायक होती है। इसी से ज्ञात होता है कि दाहिनी
दसवी पर्शुका के कार्टिलेज के नीचे पित्ताशय रहता है; या हृदय का शीर्ष
(apex) 5वीं
अंतरपर्शुका से सटा, शरीर की मध्य रेखा
से 9 सेमी. बाईं ओर
होता है; अथवा भगास्थि, ट्यूबरकल से 1 सेमी. ऊपर होती है
तथा 1 सेमी. पार्श्र्व
में बाह्य उदरी मुद्रिका छिद्र रहता है। शरीर में स्थित जहाँ बिंदु त्वचा पर
पहचाने जा सकते हैं, वहाँ से त्वचा के
अंत: स्थित अंगों को त्वचा पर खींचकर, उस स्थान पर काटने पर वही अंग हमें मिलना
चाहिए।
इसी प्रकार इस शास्त्र को अध्ययन करने की एक और
विधि है जिसमें एक्स-रे से
सहायता लेते हैं। इसे रेडियोलीजिकल अनैटोमी कहते
हैं। अस्थियों के अतिरिक्त अब धमनियों, वृक्क, मूत्राशय आदि अनेक अंगों की रचना तथा स्थिति का
अध्ययन इससे करते हैं। इससे अंगों की वास्तविक रचना तथा विकृत रचना दोनों का ज्ञान
प्राप्त होता है।
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