अर्थशास्त्र की प्रणालियां
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आर्थिक प्रणालियां[संपादित करें]
आर्थिक प्रणाली ( (Economic Systems)) एक ऐसी प्रणाली है जिसके अन्तर्गत विभिन्न व्यवसायों में काम करके लोग अपनी जीविका कमाते है। आर्थिक क्रियाओं को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए प्रत्येक देश अलग-अलग आर्थिक प्रणाली अपनाता हैं। आर्थिक प्रणालियों को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा गया है।
- (१) पूंजीवादी अर्थव्यवस्था (Capitalistic Economy)
- (२) समाजवादी अर्थव्यवस्था (Socialistic Economy)
- (३) मिश्रित अर्थ व्यवस्था (Mixed Economy)
आधुनिक अर्थिक प्रणिलियों में समाजवाद तथा पूंजीवाद का सर्वाधिक उल्लेख हो रहा है।
आर्थिक नीतियां[संपादित करें]
प्रत्येक देश, चाहे वह किसी भी आर्थिक प्रणाली के अन्तर्गत काम करता है, उसको विभिन्न आर्थिक समस्याओं जैसे गरीबी, धन व आय की असमानता, बेरोजगारी, मुद्रास्फीति व मन्दी आदि का सामना करना पडता हैं। इन समस्याओं के समाधान के लिए वह विभिन्न नीतियों को अपनाता है। मुख्य आर्थिक नीतियां इस प्रकार है।
- मौद्रिक नीति (Monetary Policy)
- राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)
- कीमत नीति (Price Policy)
- आय नीति (Income Policy)
- रोजगार नीति (Employment Policy)
- आर्थिक योजना (Economic Planning)
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री[संपादित करें]
प्रसिद्ध भारतीय अर्थशास्त्री[संपादित करें]
भारत की अर्थशास्त्र को जानने, समझने और प्रयोग में लाने की अपनी विशेष पंरपरा रही है। यह दु:ख का विषय है कि प्राचीन एव नवीन भारतीय अर्थशास्त्रियों की प्रमुख कृतियों का मूल्यांकन उचित रूप से अभी तक नहीं किया गया है और हमारे विद्यार्थी केवल पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों एवं उनके सिद्धांतो को पढ़ते रहे हैं।
प्राचीन काल के आर्थिक विचारों को हम वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों, धर्मशास्त्रों, गृह्मसूत्रों, नारद, शुक्र, विदुर के नीतिग्रंथों और सर्वाधिक रूप से कौटिल्य के अर्थशास्त्र से प्राप्त करते हैं।
वर्तमान समय में मुख्य भारतीय अर्थशास्त्रियों में-
- (१) दादाभाई नौरोजी (1825),
- (२) महादेव गोविंद रानाडे (1842),
- (३) रमेशचंद्र दत्त (1848),
- (४) गोपाल कृष्ण गोखले (1866),
- (५) महात्मा गांधी (1869) तथा
- (५) विश्वेश्वरैया (1861) के नाम उल्लेखनीय है।
सर्वोदय अर्थशास्त्र[संपादित करें]
महात्मा गांधी द्वारा प्रणीत तथा आचार्य विनोबा भावे द्वारा प्रयोग में लाई गई अर्थशास्त्र की यह विचारधारा अति आधुनिक है और भारतीयों की विशिष्ट देन है। इसके अतंर्गत ग्रामस्वराज्य, स्वावलंबन, सहअस्तित्व के प्रयोग तथा अहिंसक क्रांति जैसे विचार हैं, जो, जयप्रकाश नारायण के शब्दों में, भारत में ही नहीं, विश्व में कहीं भी कभी भी आर्थिक कांति ला सकते हैं। इनका प्रयोग नई शिक्षा के साथ साथ भारत में हो रहा है।
गणितीय अर्थशास्त्र[संपादित करें]
आधुनिक अर्थशास्त्र आधे से अधिक गणितीय माडलों, साध्यों, समीकरणों तथा फारमूलों (सुत्रों) में बंध गया है। पूर्व में सांख्यिकी का प्रयोग अर्थशास्त्री ऐच्छिक रूप से करते थे परंतु अब वह अर्थशास्त्र के हेतु अनिवार्य हो गया है। इसके अतिरिक्त अर्थमिति भी विकास माडलों में पूर्ण विकसित हो रही है। प्रवैगिक रूप में 'इन-पुट आउट-पुट विश्लेषण' से लेकर अर्थशास्त्र ने 'गेम थ्योरी' तथा 'टेक्निकल फ्लो' तक निकाल डाला है। आर्थिक सिद्धांतों को स्पष्ट करने हेतु गणितीय औजारों का प्रयोग सब अर्थशास्त्री कर रहे हैं। लिनियर प्रोग्रामिंग' तथा 'विभेदीकीकरण प्रक्रिया' के अंतर्गत अर्थशास्त्री गणितीय (विशेष बीजगणितीय सूत्रों से) दृश्य प्रभावों के साथ-साथ अदृश्य आर्थिक प्रभावों को भी दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं। गणना की छोटी मशीन से लेकर विशालतम कंप्यूटर तक अर्थशास्त्रियों की गणितीय प्रगति के व्यावहारिक रूप हैं। संभवत: अगले दो तीन दशक तक ऐसी विधियाँ अविष्कृत हो जाएँगी जिनसे गणितीय विधियों द्वारा अति संक्षेप में केवल निष्कर्ष प्राप्त होंगे तथा प्रक्रिया का कोई भी तालमेल बैठाना आवश्यक न होगा। आजकल अर्थशास्त्री गणितीय अर्थशास्त्र पद्धति पर सबसे अधिक निर्भर कर रहे हैं।
अल्पविकसित देशों का विकास[संपादित करें]
व्यावहारिक अर्थशास्त्र गरीब एवं साधनरहित देशों की व्यावहारिक समस्याओं को सुलझा रहा है। गुनार म्रिडल कृत एशियन ड्रामा संभवत: मार्क्स के दास कैपिटल के बाद सबसे बड़ा अर्थशास्त्रीय ग्रंथ प्रकाशित हुआ है जिसमें अल्पविकसित देशों की समस्याएँ सुलझाई गई हैं। अर्थशास्त्र की यह विचारधारा भी द्वितीय महायुद्ध के बाद उभरी है और इसका भी नित नवीन विस्तार हो रहा है। इसी के अंतर्गत योजनाकरण (प्लानिंग), पूंजी निर्माण तथा विदेशी सहायता जैसी वर्तमान अंतराष्ट्रीय समस्याओं का अध्ययन किया जाता है।
अर्थशास्त्र की उपादेयता[संपादित करें]
अर्थशास्त्र का महत्व बड़ी तीव्र गति से बढता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ एफाके की रिपोर्ट, (1970) ई. के अनुसार अर्थशास्त्र पर लगभग 1,000 ग्रंथ या लेख प्रति घंटे विश्व में प्रकाशित हो रहे हैं। राजनीति के बाद लोकप्रियता में अर्थशास्त्र का ही स्थान हैं। वस्तुत: अर्थशास्त्र का प्रयोग कल्याण के हेतु करना ही पड़ेगा अन्यथा केवल भौतिक साधन जुटाने का लक्ष्य रखकर एक दिन यह सबको ले डूबेगा। संतोष की बात है कि अब अर्थशास्त्री इस बात को समझने लगे हैं। भारत का प्राचीन दर्शन इस तथ्य को प्रारंभ से जानता है कि केवल भौतिक साधनों का बाहुल्य ही मनुष्य को सुखी नहीं कर सकता। प्रो॰ शुंपीटर ने अपने नवीनतम लेखअर्थशास्त्र का भविष्य में स्वीकार किया है कि सिद्धांत रूप से आर्थिक विश्लेषण चाहे जितनी प्रगति कर ले, व्यवहार में उसे हमेशा शांति, सुख एवं कल्याण के हेतु ही कार्य करना होगा। यदि अर्थशास्त्र समस्त मानव के समान कल्याण के हेतु कार्य कर सके तो इसका भविष्य बहुत उज्वल होगा। इसी कारण अब अर्थशास्त्र पर नोबेल पुरस्कार भी दिया जाने लगा है।
अर्थशास्त्र की सीमाएं[संपादित करें]
अर्थशास्त्र की मुख्य सीमायें (Limitations) निम्नलिखित हैं-
- आर्थिक नियम कम निश्चित होते है।
- अर्थशास्त्र विज्ञान तथा कला दोनों है।
- अर्थशास्त्र केवल मानवीय क्रियाओं का अध्ययन करता है।
- सामाजिक मनुष्य का अध्ययन
- वास्तविक मनुष्य का अध्ययन
- आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन
- सामान्य मुनष्य का अध्ययन
- कानूनी सीमा के अन्तर्गत आने वाले व्यक्तियों का अध्ययन
- दुर्लभ पदार्थो का अध्ययन
सन्दर्भ ग्रंथ[संपादित करें]
- वाचस्पति गैरोला: कौटिलय अर्थशास्त्र;
- तिलकनाराण हजेला: आर्थिक विचारों का इतिहास;
- निओनेल रार्बिस: अर्थशास्त्र का स्वरूप और महत्व;
- अल्फेड मार्शल: अर्थशास्त्र के सिद्धांत;
- बी.सी. सिन्हा: कीन्स का अर्थशास्त्र;
- जे.के.मेहता: स्टडीज़ इन ऐडवांसड एकोनामिक थियरी;
- पी.डी. हजेला: केन्सीय एवं क्लासिकल रोजगार सिद्धांत;
- सुधाकांत मिश्र: अर्थशास्त्र के सिद्धांत;
- डी.एन. चतुर्वेदी: महात्मा गांधी का अर्थिक दर्शन;
- अलेक्जैंडर ग्रे: आर्थिक सिद्धांत का विकास।
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